एक छोटे से गाँव में राधा नाम की एक माँ अपने बेटे अर्जुन के साथ रहती थी। राधा ने अपने पति को बहुत पहले खो दिया था, और तब से वह अकेले ही अर्जुन को पाल रही थी। खेतों में काम करके, लोगों के घरों में झाड़ू-पोछा करके, उसने अर्जुन की परवरिश की। उसके जीवन की सारी खुशियाँ अर्जुन से जुड़ी हुई थीं।
अर्जुन पढ़ाई में बहुत होशियार था। राधा ने दिन-रात मेहनत करके उसे शहर के एक बड़े कॉलेज में भेजा। बेटे को पढ़ते हुए ऊँचाइयों पर जाता देख राधा की आंखों में हमेशा गर्व के आँसू होते थे।
कुछ सालों बाद अर्जुन की नौकरी लग गई, एक बड़ी कंपनी में। शहर में उसका रहन-सहन बदल गया, सोचने का तरीका भी। अब वह अपनी माँ से कम बात करता, कभी-कभी तो महीनों बीत जाते, और एक फोन तक नहीं करता।
राधा हर दिन दरवाज़े की ओर देखती रहती — शायद आज अर्जुन का फोन आए, शायद वह आज गाँव लौटे। लेकिन समय बीतता गया, और अर्जुन की ओर से सिर्फ़ चुप्पी आती रही।
एक दिन गाँव में खबर फैली कि अर्जुन की शादी हो गई है। राधा को इस बात का पता अख़बार के एक छोटे से कॉलम से चला। उसे न तो शादी में बुलाया गया, न ही उसके बेटे ने उसे इसकी जानकारी दी।
राधा की आँखों में आंसू सूख चुके थे। वह अब हर सुबह मंदिर जाती और भगवान से बस एक ही दुआ माँगती:
"मेरा बेटा खुश रहे, भले ही मुझे भूल जाए।"
कुछ साल बाद अर्जुन को पता चला कि उसकी माँ बहुत बीमार है। जब वह गाँव पहुँचा, राधा की तबीयत बहुत बिगड़ चुकी थी। उसने कांपते हाथों से अर्जुन का चेहरा छुआ और बस इतना कहा:
"मैंने तुझे नहीं छोड़ा था, तूने छोड़ दिया बेटा…"
वो राधा की आखिरी साँसें थीं।
अर्जुन सिर झुकाकर बैठ गया — माँ को खोने का दुःख उसकी आत्मा को चीरता जा रहा था। उसे अब एहसास हो रहा था कि उसने जो खोया है, वह कभी वापस नहीं आ सकता।
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माँ की ममता अमूल्य होती है — एक बार जो उससे दूर हो गया, जीवन भर उसकी कमी महसूस करता है।
कहानी आगे बढ़ती है…
राधा के निधन के बाद अर्जुन कुछ दिनों तक गाँव में ही रहा। वह हर कोने में अपनी माँ की उपस्थिति महसूस करता — आँगन का वो तुलसी का पौधा जिसे माँ हर दिन सींचती थी, रसोई में रखा मिट्टी का घड़ा जिसमें माँ ठंडा पानी रखा करती थी, और वो चूल्हा जिसके सामने बैठकर माँ ने न जाने कितनी बार उसे अपने हाथों से रोटी खिलाई थी।
एक दिन अर्जुन माँ के पुराने संदूक को खोलने लगा। उसमें माँ की चिट्ठियाँ थीं — हर महीने अर्जुन को लिखी गई चिट्ठियाँ, जो कभी भेजी ही नहीं गईं। शायद माँ जानती थी कि अर्जुन अब उन्हें पढ़ेगा भी नहीं। एक चिट्ठी में लिखा था:
"बेटा अर्जुन, तू बहुत बड़ा आदमी बन गया है। माँ को भूल भी जाए तो चलेगा, पर अपना बचपन मत भूलना, क्योंकि वही तेरी जड़ है। माँ रोज़ भगवान से दुआ करती है कि तेरा दिल कभी पत्थर न बने।"
इन शब्दों ने अर्जुन को अंदर तक तोड़ दिया। उसे अपनी भूलों का अहसास हुआ, पर अब बहुत देर हो चुकी थी।
वह गाँव में एक पुस्तकालय बनवाना चाहता था — माँ की स्मृति में। उसने उसका नाम रखा “राधा ज्ञान मंदिर”, ताकि हर बच्चा जो कभी किताबों से दूर था, वह शिक्षा पा सके। यह अर्जुन का पश्चाताप था, उसका प्रायश्चित।
हर साल वह माँ की पुण्यतिथि पर गाँव आता, उस मंदिर में माँ की तस्वीर के सामने फूल चढ़ाता और घंटों बैठा रहता।
अब अर्जुन एक सफल इंसान था, पर उसके जीवन में एक खालीपन था — वो ममता, वो स्पर्श, वो आशीर्वाद — जिसे वह कभी समझ ही नहीं पाया जब माँ जीवित थी।