सीमा एक गरीब लेकिन स्वाभिमानी महिला थी। उसके पति का देहांत बेटे विशाल के जन्म के कुछ समय बाद ही हो गया था। उस दिन के बाद से, सीमा ने अपने जीवन को एक ही लक्ष्य में समर्पित कर दिया — विशाल की अच्छी परवरिश।
कपड़े सिलना, घरों में खाना बनाना, खेतों में मज़दूरी — जो भी काम मिलता, वह करती। दिनभर थककर लौटती, लेकिन बेटे के चेहरे की मुस्कान देखकर उसकी सारी थकान मिट जाती।
विशाल पढ़ाई में तेज़ था। माँ ने अपनी सारी जमापूंजी, गहने और ज़रूरतें काट-काट कर उसे इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला दिलाया। जाते समय बस इतना कहा:
बेटा, वादा कर कि जब बड़ा आदमी बनेगा, तो इस माँ को कभी नहीं भूलेगा।
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विशाल की आँखों में आँसू थे। उसने माँ का हाथ थामकर वादा किया:
आप ही मेरी दुनिया हो माँ। मैं कभी नहीं बदलूंगा।
समय बीतता गया। विशाल की नौकरी लग गई, शहर में। वह सफल हुआ, शादी की, और एक नई दुनिया बसा ली। माँ को वह समय-समय पर पैसे भेजता, लेकिन अब फोन कम आते थे, और मुलाक़ात तो सालों से नहीं हुई थी।
सीमा हर त्योहार पर दरवाज़े पर दीया जलाती, सोती नहीं थी — शायद बेटा आ जाए।
एक दिन गाँव में बाढ़ आई। सीमा का कच्चा घर ढह गया। पड़ोसियों ने विशाल को फोन किया, पर वह किसी मीटिंग में व्यस्त था। दो दिन बाद जब फोन देखा, तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
सीमा अब इस दुनिया में नहीं थी।
उसकी आख़िरी सांसों में बस एक ही शब्द था —
“बेटा आएगा… उसने वादा किया है।”
विशाल दौड़कर गाँव पहुँचा, लेकिन माँ अब सिर्फ़ एक framed फोटो बन चुकी थी, जिसके नीचे लिखा था:
"एक माँ जो वादों पर जिंदा रही।"
उस दिन विशाल की आँखों से आंसू थम नहीं रहे थे। उसने अपनी सारी उपलब्धियाँ देखीं, पर एक माँ की अधूरी आँखें उसके जीवन की सबसे बड़ी हार बन गईं।
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कभी भी उस इंसान को न भूलिए जिसने चलना सिखाया, गिरते वक्त उठाया, और बिना किसी शर्त के प्यार किया — आपकी माँ।
"चिट्ठियाँ जो कभी पोस्ट नहीं हुईं"
उषा देवी एक शिक्षिका थीं — विनम्र, पढ़ी-लिखी और बहुत भावुक। उनके पति सरकारी नौकरी में थे, लेकिन एक सड़क दुर्घटना में असमय चल बसे। उनका बेटा निखिल तब दस साल का था।
उषा ने नौकरी के साथ-साथ माँ और बाप दोनों का फर्ज़ निभाया। सुबह स्कूल, दोपहर में ट्यूशन, रात को घर के काम — उसकी दिनचर्या में थकावट तो थी, पर शिकवा कभी नहीं था।
निखिल बड़ा हुआ। होशियार था, और माँ की मेहनत को समझता था। पढ़ाई में अव्वल आता, माँ को गले लगाता और कहता,
"माँ, एक दिन मैं तुम्हें बहुत खुश करूँगा।"
उषा बस मुस्कुरा देती, लेकिन दिल ही दिल में डरती थी — "बच्चे बड़े होकर अक्सर बदल जाते हैं..."
निखिल को विदेश में स्कॉलरशिप मिल गई। जाने से पहले माँ से वादा किया:
"हर हफ्ते फोन करूँगा, हर महीने चिट्ठी भेजूँगा।"
पहले-पहले सब ठीक चला, लेकिन धीरे-धीरे कॉल्स कम होते गए। फिर सिर्फ त्योहारों पर आते। माँ की चिट्ठियाँ जाती रहीं — बेटे की पसंद की चीज़ें, पुराने किस्से, छोटे-मोटे गाँव के हाल — लेकिन जवाब कभी नहीं आया।
माँ हर हफ्ते पोस्ट ऑफिस जाती, पूछती:
"मेरे नाम की कोई चिट्ठी आई क्या?"
डाकिया मुस्कुरा देता, "नहीं अम्मा, अगली बार शायद..."
समय बीतता गया।
उषा अब बूढ़ी हो गई थी। आंखें कमजोर हो गईं, लेकिन दिल का इंतज़ार उतना ही मजबूत रहा। एक दिन, उसने निखिल के नाम एक लंबा पत्र लिखा। आख़िरी पन्ने पर लिखा:
"शायद ये आख़िरी चिट्ठी है बेटा। अब हाथ कांपते हैं, आंखें धुंधली हैं। अगर कभी लौटना हो तो इस बार खाली हाथ मत आना — थोड़ी ममता, थोड़ी यादें, और थोड़ा वक़्त ले आना।"
वह चिट्ठी भी उसने पोस्ट नहीं की।
कुछ महीनों बाद, निखिल लौटकर आया — माँ को सरप्राइज़ देने। लेकिन जब वह घर पहुंचा, दरवाज़ा बंद था। पड़ोसी ने बताया:
"अम्मा अब नहीं रहीं... लेकिन तुम्हारे नाम की दर्जनों चिट्ठियाँ तकिए के नीचे रखी थीं। हर रात उन्हें पढ़ती थीं..."
निखिल फूट-फूट कर रोया।
उसने माँ की अलमारी खोली — वहाँ एक लकड़ी का डिब्बा था, जिसमें माँ की लिखी सैकड़ों चिट्ठियाँ थीं, जो कभी पोस्ट ही नहीं हुईं। हर चिट्ठी में एक ही बात दोहराई गई थी —
"मेरा बेटा आएगा… वो मुझसे प्यार करता है।"
माँ की ममता शब्दों में नहीं समाती — वह इंतज़ार करती है, सहेजती है, और कभी शिकायत नहीं करती।