गाँव के एक छोटे से घर में एक माँ, सावित्री, अपने इकलौते बेटे, अंशु के साथ रहती थी। उसके पति का निधन कई साल पहले हो चुका था। अंशु ही उसकी दुनिया था — उसकी हँसी, उसकी आशा।

सावित्री ने गरीबी में भी अपने बेटे को पढ़ाया-लिखाया, मेहनत-मजदूरी करके उसकी हर जरूरत पूरी की। अंशु होशियार था, और माँ की मेहनत रंग लाई — उसे शहर की एक बड़ी कंपनी में नौकरी मिल गई।

शहर जाते समय अंशु ने वादा किया था, "माँ, मैं हर महीने पैसे भेजूंगा। जल्द ही आपको भी शहर ले आऊंगा।"

शुरू में कुछ महीने तक पैसे आते रहे, फोन भी आता था। पर धीरे-धीरे सब बदलने लगा।

फोन आने बंद हो गए। पैसे भी नहीं आए। माँ हर दिन दरवाज़े की ओर देखती रहती, सोचती — "शायद आज अंशु आएगा, मेरी याद आई होगी उसे।"

गाँव वाले ताने मारने लगे — "बेटा तो भूल गया आपको, शहर जाकर माँ को कौन याद रखता है?"

मगर सावित्री को यकीन था, उसका अंशु ऐसा नहीं है। हर दिन वो एक थाली ज़्यादा रखती — "शायद आज वो आए।"

कई साल बीत गए। एक दिन गाँव में खबर आई — शहर के अस्पताल में एक युवक की दुर्घटना में मौत हो गई है, नाम अंशु था। किसी ने माँ को बताया।

सावित्री भागते हुए शहर गई, और जब उसने बेटे का चेहरा देखा, उसकी दुनिया वहीं रुक गई।

उसकी आँखें सूनी हो गईं, दिल पत्थर सा हो गया। आँसू भी सूख चुके थे। उसने बस एक बात कही —

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"कम से कम मरने से पहले मेरी गोद में सिर रख देता, बेटा…"

वो लौट तो आई गाँव, मगर अब उसकी आँखों में इंतज़ार नहीं था — सिर्फ ख़ामोशी थी।

शीर्षक: "इंतज़ार"

(माँ और बेटे की एक छोटी-सी, लेकिन दिल तोड़ देने वाली बातचीत)

(दृश्य: माँ का पुराना घर। आँगन में एक टूटी हुई खाट, चूल्हे पर चाय चढ़ी है। माँ खिड़की से बाहर देख रही है। दरवाज़ा धीरे से खुलता है, अंशु आता है… माँ सपना देख रही है।)

माँ (हैरानी से):
तू… अंशु? तू आ गया बेटा?

अंशु (धीरे से):
हाँ माँ… बहुत देर कर दी ना मैंने?

माँ (आँखें नम):
देर? नहीं बेटा… माँ कभी देर का हिसाब नहीं रखती।
बस तू आ गया, यही काफी है।
इतने साल… तेरा कोई ख़त नहीं, आवाज़ नहीं।
तू तो कहता था, माँ को साथ ले जाऊँगा।

अंशु (नज़रें झुकी हुई):
शहर में भीड़ थी माँ…
ज़िम्मेदारियाँ थीं, और शायद…
शायद मैं खुद को ही खो बैठा था।

माँ:
मैं तो हर रोज़ तेरे लिए दो रोटी ज़्यादा बनाती थी…
तेरी पसंद की आलू-भुजिया, अब भी बनाती हूँ।
खिड़की से हर आवाज़ पर लगता, तू आया है।

अंशु (आँसू रोकते हुए):
माफ़ कर दे माँ…
अब कुछ नहीं बचा कहने को…
बस तू एक बार गले लगा ले।

(माँ आगे बढ़ती है, बेटे को गले लगाती है — लेकिन वह खाली हवा है। बेटा अब नहीं है। वह सिर्फ एक सपना था…)

माँ (खुद से):
तेरा सपना ही सही…
पर तू आया तो…
अब चैन से मर सकूँगी, बेटा।

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